Miyawaki Technique : झारखंड के पलामू और लातेहार जिलों में जल्द ही हरियाली की एक नई कहानी लिखी जाएगी। यहां की बंजर ज़मीन अब घने जंगलों में बदलने वाली है, और यह मुमकिन होगा जापान की आधुनिक Miyawaki Technique की मदद से।
What is Miyawaki Technique | क्या है मियावाकी तकनीक?
मियावाकी तकनीक जापान के प्रसिद्ध वनस्पति वैज्ञानिक डॉ. अकीरा मियावाकी द्वारा विकसित की गई है। इसका मकसद है– कम समय में, कम जगह में और अधिक घना जंगल तैयार करना। इस तकनीक में स्थानीय प्रजातियों के पौधों को एक साथ, बेहद घनत्व के साथ लगाया जाता है, जिससे वे एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा कर तेजी से बढ़ते हैं।
इस तकनीक की कुछ प्रमुख बातें:
- पौधे तीन अलग-अलग ऊंचाई की लेयर्स में लगाए जाते हैं – जैसे जड़ी-बूटी, झाड़ी और पेड़।
- मिट्टी का विशेष ट्रीटमेंट किया जाता है ताकि उसकी जैविक ताकत बढ़े।
- पौधों को ग्रोथ के लिए प्रेरित किया जाता है जिससे 3–5 साल में एक मिनी जंगल तैयार हो जाता है।
- इस तकनीक से जंगल 5 से 8 वर्षों में पूरी तरह विकसित हो जाता है।
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कहां तैयार होगा जंगल?
पलामू टाइगर रिज़र्व से सटे बेतला नेशनल पार्क के पास स्थित हुकामाड़ गांव को इस योजना के लिए चुना गया है। यहां करीब 20 एकड़ बंजर भूमि को हरा-भरा जंगल बनाने की योजना है।
क्यों है यह ज़रूरी?
हाल ही में आई फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, पलामू क्षेत्र में भले ही 2.36 वर्ग किलोमीटर जंगल बढ़े हों, लेकिन टाइगर रिज़र्व से बाहर के इलाकों में घने जंगलों में कमी देखी गई है। ऐसे में मियावाकी तकनीक, पर्यावरण को संतुलित रखने और वन्यजीवों के लिए सुरक्षित आवास प्रदान करने में मदद कर सकती है।
खर्च और तैयारी
इस तकनीक से जंगल तैयार करना थोड़ा महंगा जरूर है – प्रति एकड़ करीब 1.5 लाख रुपये तक की लागत आती है। लेकिन इसके परिणाम काफी असरदार और लंबे समय तक टिकने वाले होते हैं।
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प्रजेशकांत जेना, उपनिदेशक, पीटीआर के अनुसार:
“इस तकनीक से बहुत ही कम जगह में घना जंगल तैयार हो जाता है। अलग-अलग लेयर के पौधे सूरज की रोशनी को सोखते हैं और तेजी से बढ़ने की होड़ लगाते हैं। मिट्टी की जैविक गुणवत्ता इसमें अहम भूमिका निभाती है।”
निष्कर्ष
पलामू और लातेहार जैसे इलाकों में जहां बंजर ज़मीनों की भरमार है, वहां मियावाकी तकनीक नई उम्मीद लेकर आई है। यह न सिर्फ वनस्पति कवर बढ़ाने में मदद करेगी बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और जीव-जंतुओं की सुरक्षा के लिए भी बेहद उपयोगी साबित होगी। अगर यह योजना सफल होती है तो आने वाले समय में झारखंड के कई अन्य जिलों में भी हरियाली लौट सकती है।